Saturday, March 1

बेशक़...

आशिक़ी में जलते परवाने अपना दर्द जताते नहीं;
दूरियों में जीते जरुर है, नज़दीकियाँ मिटाते नहीं...

रातभर तेज़ तूफ़ान में हमने दिया जलाये रखा;
वो सुबह आकर कहते हैं हम दिए जलाते नहीं...

हम उनके कहने पर अपना शहर मिटा आये;
और वो हमसे पूछ गए, क्यों वादे निभाते नहीं...

हया न बन जाए जो नज़र हमारी उठे;
काश वो समझ पाते हम क्यों नज़र मिलते नहीं...

वो पूछते हैं, हमने क्यों न भुला दिया उन्हें;
कह दो उनसे साये अपना वजूद भुलाते नहीं...

गुज़रे हम गर गली से तो खिड़की बंद कर देते हैं;
मिलते है तो कहते है आप घर आते नहीं...

मयखाने से तो वो बेहद नफरत रखते हैं;
हमसे पूछते हैं आप अपना घर दिखाते नहीं...

अपना नसीब भी हमने उनके नाम लिख दिया;
काश अपने पास रखते, लोग बदनसीब बुलाते नहीं...

बेशक़ उन्हें रोशनी कि तलाश होगी "मुसाफिर"
वर्ना वो हमे यू अंधेरो में छोड़ जाते नहीं...
.......................................................... मुसाफिर

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