Thursday, January 5

तेरी राह तकते

तेरी राह तकते जो दीये लगाए थे
कुछ जलते रहे, कुछ बुझ भी गए

मंज़िल की तलाश में बहोत से निकले
कुछ चलते रहे कुछ रुक भी गए

गुलज़ार-ए-जख़्म में तेरे ये ग़ुल
कुछ खिलते रहे कुछ सुख भी गए

सबको अपना कहते आये थे हम
कुछ मिलते रहे कुछ भूल भी गए

वो शजर सियासती आँधी में खड़े थे
कुछ हिलते रहे कुछ झुक भी गए

समेटे थे जो ख्वाब पलकों में हमने
कुछ पलते रहे कुछ टूट भी गए

'दाग़' काश होते महफ़िल-ए-'मुसाफिर' में
हम बोलते रहे सब उठ भी गए
............................................मुसाफिर