Friday, March 28

जख्मी..

प्रेम
बघतेस न चुकता आणि
क्षणात नजरा वळतात
कसा सांगू प्रिये
आसवे हृदयातून गळतात

खरच इथे चालतांना
हजारो अळखळतात
हृदये जेव्हा तुटतात
सारेच तडफडतात

तुझ्या डोळ्यातील आसवे
आठवतात, छळतात
जणू गुलाबाच्या पाकळ्या
कोमेजून पडतात

मित्रहो प्रेमात पडलेले
सगळेच रडतात
या जखमांतील वेदना
फक्त जखमींनाच कळतात ...

मितवा ना बचा...

कभी लगा कि गम निगल ना जाये हमें
गम दूसरों का देखा तो कोई शिकवा ना बचा..

हम अकेले ही नहीं है टुकड़ो में ढलने वाले
जिनका आज तारीख में कोई मितवा ना बचा...

खैर खुश है कि नशा उतर गया
आज महोब्बत का यहाँ मैकदा ना बचा...

पहले भी थी, अब भी नम है आँखें
दर्द कि बाँहों में कोई अपना ना बचा...

ला उम्र हमने उनकी याद में निकाली हैं
अब देख सके ऐसा कोई सपना ना बचा...

अच्छा है कि दिल ख़ामोशी से टूटते हैं
दिल कि चीखे सुनने वाला यहाँ कारवां ना बचा....

Thursday, March 27

जागृत ??


भारत माझा देश आहे
हि प्रतिज्ञा कालबाह्य ठरत आहे
देश ठेल्यांवर विक्रीस मांडलेला पाहून
असे जनता ग्राह्य धरत आहे
"राजनीतीच भ्रष्ट आहे" म्हणायचा
अधिकार कायद्याने दिलेला आहे
आणि म्हणतांना मात्र विसरतो
"भ्रष्टांचा" आम्हीच पुरस्कार केलेला आहे
दर पाच वर्षांनी युद्ध पेटते येथे
अशा अनेक युद्धांना देश सामोरे गेलेला आहे
गोळी शरीर न चिरतात हृदय छेदते
तेव्हा अंतर यातनेनच भारतीय मेलेला आहे
पण भातुकलीच दोर आता आम्ही हातात घेऊ
हातपाय हलवायचा वेड लागलेला आहे
नाही म्हणता म्हणता किती दिवसांनी
भारतीय माणूस जागलेला आहे
"मी" चे आम्ही होऊन दाखवू
युवा रक्ताला चेव फुटलेला आहे

"भारत आमचा देश आहे"
संदर्भ: हा आत्ताच झोपेतून उठलेला आहे...

उशीर झाला

हळूहळू समजले, जरा उशीर झाला
सर्वांपूढे उभा मघाशीच होतो...
चालले काय म्हणत सावल्यांसमोर
बडबडणारा तो मीच होतो...

अरे च्यायला जखमेवर याच्या
खपली चढली, दुरुस्तही झाली...
अरे हो, मघा त्याच्या जखमेवर
तडफडणारा तो मीच होतो...

नाही, इथे आम्ही खेचत नाहीत
पाय वर चढणार्यांचे..
पण लक्षात आले, उंचावरून
तोंडघशी पडणारा मीच होतो...

अरे हेच तर ते आहेत
दिवस मशाली पेटवणारे...
अनं यांच्यात तमचिरागत
धडपडणारा तो मीच होतो...

आत्ताच माझी प्रेतयात्रा गेली
त्यात एकटा हळहळनारा मीच होतो...
ती धुमसत आहे बघ चिता एकटीच
त्यात जळणाराही  मीच होतो...

नजरभेट

ह्या अफाट नभामध्ये आसवे दडली किती
मजसवे वसुधेसाठी ढग रडली किती
माझ्या जखमेतील वेदना तुला कळली किती
पापण्यामागून आसवे माझ्या पडली किती
प्रत्येक ठेचेसरशी पाऊले अडखळली किती
सहाऱ्यावाचून माझ्या वाट तुझी नडली किती
व्रण माझे बघाया नजर तुझी वळली किती
फक्त एका नजरभेटीला अनाहत श्वास अडली किती....

रात

रात चांदण्यांनी भरलेली, अंगणी माझ्या उतरलेली
एकटीच रे मी आहे, म्हणून ओक्साबोक्शी रडलेली..

मी विचारले तिला, भर चांदण्यात नाहलेली
मग एकटीच कशी तू, दु:खात वाहलेली...

रात मला म्हणाली...

तुझ्याही तर भोवती, माणसांचा गराडा,
मग तूही रात्र रात्र, का जागून काढलेली...

मी विचारात पडलो अनं धाय मोकलून रडलो
भोवती होती माझ्या, जीर्ण वृक्ष वाढलेली...

कुणी तरी आपलं हवं होतं मला
अनं हवी होती नाड जोडलेली

मी आकाशी बघितलं, रात सूनी शी दिसली
रात चन्द्राविन होती, गच्च अंधारलेली...

Sunday, March 2

समझदार...

हम कसूरवार थे गर उनके इस कदर
कसूर हमारा हमें जता कर तो देखते...

वो कहते है कि हम समझ न पाये उन्हें...
एक बार दिल कि बात बता कर तो देखते..

झूठ बोल गयी हमसे उनकी नज़रे भी
जो सच था नज़रो में दिखा कर तो देखते...

क्या छिपा है इस दिल में जान लेते तुम भी
इस दिल से दिल लगा कर तो देखते...

कितनी तड़प है हमारी महोब्बत में
इस कदर अपने आप को सता कर तो देखते...

हम डूब गए थे महोब्बत में आपके
कभी खुदको गहराईयों में डूबाकर तो देखते...

जान लेते ज़िन्दगी को तुम भी "मुसाफिर"
उनकी यादो को तुम भुलाकर तो देखते...

Saturday, March 1

रात अभी बाकी है...

कट जायेगी ज़िन्दगी, रुखसत किये कहा है अभी...
जाम भरा हुआ है, पिए कहा हैं अभी...

उनसे रूबरू होने की ख्वाहिश सी जगी है..
मुलाकात के दौर, चले कहा है अभी...

इस कदर गम में डूबकर कौन जीता है...
मुस्कुराकर ज़िन्दगी को छुए कहा है अभी...

जिन लबों में पिरोया हमने अक्स ज़िन्दगी का ...
उन लबों से लफ्ज हमने लिए कहा है अभी...

ये न कहो की इश्क़ में शायर बना है...
मेरे अलफ़ाज़ तुमने सुने कहा है अभी...

हर जर्रे में होगा नशे का सुरूर आज रात...
रात अभी बाकी है, हम जिए कहा है अभी...
.....................................................मुसाफिर

कुछ नहीं हैं तुम्हारा...

इस ख्वाब के दरिया का, किनारा कहाँ हैं;
जो देखना चाहती थी नज़रे, वो नज़ारा कहाँ हैं ...

किया करते थे जिससे, तुम महोब्बतें बयाँ;
मेरे मेहबूब तुम्हारा, वो इशारा कहाँ हैं...

जिन लबों को छूकर, वक़्त गुज़रता था हमारा;
न जाने ज़िन्दगी का, वो गुज़ारा कहाँ हैं...

तिलमिलाती सी जलती रही, मेरे साथ अँधेरे में;
शमा बुझ गयी हैं, सवेरा कहाँ हैं...

जो गाया करता था, यहाँ नगमे वफ़ा के;
मैं ढूँढता हूँ उसे, वो बंजारा कहाँ हैं...

मेरे लफ्ज, मेरी ग़ज़ल, जिनके सहारे जीता था;
लफ्ज खो चुके हैं, मेरा सहारा कहाँ हैं...

कुछ नहीं हैं तुम्हारा, ये अब तो समझ लो "मुसाफिर"
जो हमारा हुआ करता था, वो अब हमारा कहाँ हैं...
...................................................मुसाफिर

हमसफ़र

रात सुर्ख आँखों में इस कदर रूकी हैं;
कि रौशनी हुई है और रौशनी भी नहीं...

शब् ने मेरे दिल को ही घर बना लिया;
कि शब् रूकी है दिल में जो ढलती भी नहीं...

जो बेरुखी हो हमसे तो बता दीजियेगा;
जो बेरुखी हो लंबी कि ज़िन्दगी भी नहीं...

इस चाँद को थोडा और ऊँचा कर दो;
है छूने कि तमन्ना जो बदलती भी नहीं...

हाँ, वो उम्रभर भूल न पाए हमें;
इक यादों की शमा कि उनसे जलती भी नहीं...

महोब्बत का गूर कहीं गूम गया है हम में;
क मैकदे के साकी में जो मैकशी भी नहीं...

घर के किवाड़ों को मेरे खुला छोड़ देना;
वो देख सके महोब्बत ये बाहरी भी नहीं...

कि साथ अक्सर छूटते हैं राहों पे 'मुसाफिर';
कि हमसफ़र समझते थे वो राहगीर भी नहीं...
..................................................मुसाफिर

वक़्त...

कल के ख्वाबों तले अपना कल भुला रहा है,
जो बीत चूका वक़्त, उसे वक़्त बुला रहा है...

तारीख के तवे पर सिकती हुई रोटीयाँ,
वक़्त फेर रहा है, वक़्त जला रहा है...

'दो वक़्त' अब वक़्त के दायरे में ना रहा,
एक वक़्त की भूख खुद, वक़्त मिटा रहा है...

कश्मकश में बिखर चुकी ज़िन्दगी है अपनी,
बिखरी हुई ज़िन्दगी ये, वक़्त जुटा रहा है...

कहते थे वक़्त हर जख्म मिटा देगा,
क्यों मुझपर जख्म फिर, वक़्त बना रहा है...

वक़्त-पाबंद बना हूँ की वक़्त नहीं मिलता,
मेरे इसी गम का जश्न, वक़्त मना रहा है...

जहाँ हर गली में मौत बिक रही है,
ज़िन्दगी को दाम वहाँ, वक़्त दिला रहा है...

अभी ख्वाब देखने शुरू किये थे 'मुसाफिर'
ये वक़्त हकीक़त से, बेवक्त मिला रहा है...
.....................................................मुसाफिर

संघर्ष...

ये ज़िन्दगी कोई संघर्ष है तो क्या,
थोड़ा ज़ख्मों का है डर, है तो क्या,
बुनियाद लोगों नें खोखली कर रखी है,
अब तूफाँ को पता मेरा घर है तो क्या! 

मेरे आने से कोई बेखबर है तो क्या,
मुझे महोब्बत है किसीसे मगर, है तो क्या,  
धुंधलाते धुए में समाना है अब तो,
फिर ये काफिला है या समंदर, है तो क्या! 

ये झुका हुआ मेरा सर है तो क्या,
मुझे पहचानती हर नजर है तो क्या,
अब अपनों के धोखो की आदत सी है, 
यहाँ अपनों का है बसर, है तो क्या!

ये रात का आखरी पहर है तो क्या,
है ये नशे का असर, है तो क्या,
यु भी तो रुख्सत होना ही है कभी, 
गर जाम में है ज़हर, है तो क्या!

सावन में सुख चूका शज़र है तो क्या, 
ये परिंदे पे कोई कहर है तो क्या,
नसीब का पन्ना मेरी ज़िन्दगी में नहीं,
या खुदा के लिखने में कसर है तो क्या!

साहिल से आगे निकली लहर है तो क्या,
शहर के डूबने का मंजर है तो क्या,
चल कोई नया बसेरा ढूंढ़ ले 'मुसाफिर',
ये कोई अनजान शहर है तो क्या!
...............मुसाफिर...................

दुल्हन...

आज बड़ी उल्फत महसुस हो रही है,
मंजील मेरी सामने नजर आ रही है...

हर पल धड़कता रहा थक गया था ये दिल,
शाम हो रही है धड़कन थमती जा रही है...

खूब इंतज़ार किया था मेरी दुल्हन का मैंने,
खूब सजाओ मुझे वो मिलने बुला रही है...

थमती साँसे रुकता दिल समां भी ऐसा है,
जैसे महबूब से पहली मुलाकात हो रही है...

लगा था की क्या खुशनुमा आलम होगा,
उलझन है की दुनिया आंसू बहा रही है...

उम्रभर ये गम की कुछ नहीं है मेरा,
कफ़न ओढ़ते ही जमीं मेरी हो रही है...

पहले बता देते लोग कंधो पे उठाते है ,
अकेले चलने की मेरी आदत सी रही है...

आज़ाद हो रहा हूँ ज़िन्दगी की पकड़ से,
वो रोये जा रही है मौत जश्न मना रही है...

बस अब थोडासा सफ़र बचा है "मुसाफिर"
की देख तेरी कब्र नजदीक आ रही है !!
                                                - मुसाफिर

विदाई ...


जब  भी  आईने   में  मैंने  देखा  कभी ,
तेरी  ही  परछाई  मेरी  निगाह  में  थी !
कुछ  तेरी  गलियो  का   भी  कसूर  था ,
जो  मेरी  ख़ुशी  गम   के  पनाह   में  थी
हर  अश्क  जो  मेरी  पलकों  में  रुका ,
वो  तेरे  ही  इंतेज़ार  में   था
वो  तेरा  ही  दिया  जख्म  था ,
जिसकी  तड़प   मेरी  आह  में  थी !!

हर  ठोकर  जो  खायी  मैंने ,
वो  तेरे  ही  घर  कि  राह  में  थी !
जब  पंहुचा  तेरे  दर  पे  मैं,
तू  किसी  और  के  बाह  में  थी !!
हर  पत्थर  मुझपे   बरसा  जो ,
वो  तेरे  ही  चाहनेवालो  का  था
मुझे   आवारा  कहती   भीड़  भी
तेरी  ही  झलक  कि  चाह  में  थी !!

तन्हाई  कि  सलाखो  के  पीछे  खड़ी  ज़िन्दगी ,
तेरे  ही  इश्क़  के  गुनाह  में  थी !!
वो  सुन  न  पायी  ये  बहरी दुनिया
जो  चीख  दबी  मेरे  कराह में थी !!
आंसू मेहमानो के तेरे निकाह में
तेरी बिदाई के नहीं थे पागल !!
वो  अभी  लौटे  मेरी  कब्र  से  थे ,
जो  तब  सजी  कबरगाह  में  थी !!

बहाना...

यादों के साये, दिल के जख्म
सब पुराना हो गया है…
ज़िन्दगी क़ुरबानी ही है दोस्त
हर अपना बेगाना हो गया है…
चाहतो के मंज़र आंसुओ में
कबके बह चले है …
धड़कनों को हमारे बंद हुए
यार ज़माना हो गया है…
प्यास पिने कि होती गर
बुझा लेते हम आंसुओ से
महोब्बत कि प्यास में तड़पना
मौत का अफसाना हो गया है…
लोग खुशीसे देखते है
ये मुस्कुराता हुआ चेहरा
"मुसाफिर", मुस्कराहट तो बस
जीने का बहाना हो गया हैं…
..........................................मुसाफिर

सहारा...

कदम हरकदम फासले बढ़ते चले गए,
पास आये नहीं आप और बिछड़ते चले गए…

बा-अदब हर दर पे सिर को झुका दिया,
सिर बचाके हर दर से निकलते चले गए…

किताबो में पढ़ी आज़ादी समझ आयी जब,
बंध खुलते ही पंछी दूर उड़ते चले गए…

जब कोशिश की हमने शब् में दिये जलाने की,
मेरे साये खुदकी पेशगी पे झगड़ते चले गए…

दो पल हर राहगीर ने मेरा जलता घर देखा,
उस रोज़ सब घरके दिये बुझाते चले गए…

हर रात उनके इंतज़ार में रौशनी की कोशिश,
हर कोशिश में हम हाथ अपना जलाते चले गए…

हम अकेले ही थे जिन्हे बदला नहीं गया,
लोग हमारा सहारा बदलते चले गए…

जब देखा उन्होंने मेरी कब्र पर अपना नाम लिखा,
हँसते हुए आये थे रोते चले गए...
...........................................................मुसाफिर

अजनबी...

आंच हलकी हैं अभी, फूँक के बुझा ले;
आगे जलजले उठने में देर नहीं लगेगी...

बचा है जो यहाँ, समेट ले आगोश में;
ये आशियाना टूटने में देर नहीं लगेगी...

कर ऐसा इश्क़ की दूरी कभी न हो;
तेरी महोब्बत को रूठने में देर नहीं लगेगी...

बस अभी आसमाँ रोने को है, फिर;
इस बस्ती के डूबने में देर नहीं लगेगी...

हर बहती कश्ती किनारे नहीं लगती;
लहरे दर्द की जुटने में देर नहीं लगेगी...

माना की आईने में हम उन्हें देखा करते हैं;
शीशा है, फूटने में देर नहीं लगेगी...

हम फ़लक़ तक उड़ने की ख्वाहिश नहीं रखते;
साथ अपने ही परों का छूटने में देर नहीं लगेगी…

हमारी पहचान ही हमसे अजनभी हुई है;
ये अश्क रुकने में कैसे देर नहीं लगेगी…
.....................................................मुसाफिर

हक़ीक़त ...

हम दूसरों के घर बुझाने निकले थे;
घर खुदका कब जल गया पता ही नहीं चला...

यार बरसो बाद मिलने वाला था हमें;
वो सामने से हमारे कब गया, पता ही नहीं चला...

अहसास अब हुआ है की वो साथ नहीं है मेरे;
रुख धीरे से कब मोड़ लिया पता ही नहीं चला...

सोचा आवाज़ होगी तब यकीन करेंगे;
दिल ख़ामोशी से कब टूट गया पता ही नहीं चला...

नज़र उठाई फ़लक़ पर, एक तारा टूट रहा था;
हमारे देखते ही क्यों रुक गया, पता ही नहीं चला...

हमे लोगो से पता चला हमारी कब्र खुद रही है;
मैं इंसानो से कब उठ गया, पता ही नहीं चला...
..............................................................मुसाफिर

कुछ लोग...

कुछ लोग ज़िन्दगी भर अंधेरो से डरते हैं;
कुछ रौशनी कि चाह में अंधेरों में मरते हैं...
कुछ गैरों के घरों की रौशनी से जलते हैं;
कुछ अपने घर जला कर रोशनी करते हैं...

कुछ लोग हाथों की लकीरों में ढल जाते हैं;
कुछ अपना नसीब खुद बदल जाते हैं...
कुछ कहते हैं की मंज़िल मिली नहीं है अभी;
और कुछ मंज़िल से आगे निकल जाते हैं...

कुछ भरते हैं आह, हर चोट जब खाते हैं;
कुछ हर चोट पर बस मुस्कुराते हैं...
कुछ रोते हैं की ज़िन्दगी में गम बहोत है;
और कुछ अपने गमों को ही ज़िन्दगी बना लेते हैं...
...............................................................मुसाफिर

बेशक़...

आशिक़ी में जलते परवाने अपना दर्द जताते नहीं;
दूरियों में जीते जरुर है, नज़दीकियाँ मिटाते नहीं...

रातभर तेज़ तूफ़ान में हमने दिया जलाये रखा;
वो सुबह आकर कहते हैं हम दिए जलाते नहीं...

हम उनके कहने पर अपना शहर मिटा आये;
और वो हमसे पूछ गए, क्यों वादे निभाते नहीं...

हया न बन जाए जो नज़र हमारी उठे;
काश वो समझ पाते हम क्यों नज़र मिलते नहीं...

वो पूछते हैं, हमने क्यों न भुला दिया उन्हें;
कह दो उनसे साये अपना वजूद भुलाते नहीं...

गुज़रे हम गर गली से तो खिड़की बंद कर देते हैं;
मिलते है तो कहते है आप घर आते नहीं...

मयखाने से तो वो बेहद नफरत रखते हैं;
हमसे पूछते हैं आप अपना घर दिखाते नहीं...

अपना नसीब भी हमने उनके नाम लिख दिया;
काश अपने पास रखते, लोग बदनसीब बुलाते नहीं...

बेशक़ उन्हें रोशनी कि तलाश होगी "मुसाफिर"
वर्ना वो हमे यू अंधेरो में छोड़ जाते नहीं...
.......................................................... मुसाफिर