Saturday, March 1

वक़्त...

कल के ख्वाबों तले अपना कल भुला रहा है,
जो बीत चूका वक़्त, उसे वक़्त बुला रहा है...

तारीख के तवे पर सिकती हुई रोटीयाँ,
वक़्त फेर रहा है, वक़्त जला रहा है...

'दो वक़्त' अब वक़्त के दायरे में ना रहा,
एक वक़्त की भूख खुद, वक़्त मिटा रहा है...

कश्मकश में बिखर चुकी ज़िन्दगी है अपनी,
बिखरी हुई ज़िन्दगी ये, वक़्त जुटा रहा है...

कहते थे वक़्त हर जख्म मिटा देगा,
क्यों मुझपर जख्म फिर, वक़्त बना रहा है...

वक़्त-पाबंद बना हूँ की वक़्त नहीं मिलता,
मेरे इसी गम का जश्न, वक़्त मना रहा है...

जहाँ हर गली में मौत बिक रही है,
ज़िन्दगी को दाम वहाँ, वक़्त दिला रहा है...

अभी ख्वाब देखने शुरू किये थे 'मुसाफिर'
ये वक़्त हकीक़त से, बेवक्त मिला रहा है...
.....................................................मुसाफिर

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