Friday, February 14

बे-पनाह

इक परिंदा मासूम भरता है आह,
दर दर पे उतरके, ढूंढ़ता पनाह...

सोचता है शजर, क्यो गिर पड़ा,
क्या थी वजह, क्या था गुनाह...

हर तिनके में तिनका, महोब्बत रखी,
और उड़ गए आवारा, बे-परवाह...

यू बिखरा घिरोंदा, बनाया था जो,
एक पल के तूफा ने, किया तबाह...

टूट चुका हौसला, अब मेरे मालिक,
नहीं कोई आरज़ू, ना कोई चाह...

मेरे बिखरने पे गर संवरता है कोई,
सजा देना अर्थी, दिखा देना राह...

ये इश्क का दिन, आज है क्या,
ये रात चुनते हैं, होने फनाह़...

वो शब-ए-वस्ल थीं, आख़री थीं,
ये आख़री ग़ज़ल, इक आख़री वाह...

ऐ रुकते मुसाफ़िर, क्या पा लिया,
गर कर भी ली महोब्बत, बे-पनाह...

Thursday, February 13

कैसे कहूं

लफ़्ज़ों से परे हो वोह बात, कैसे कहूं,
मैं तुमसे ये मेरे हालात, कैसे कहूं...

कोई गुलाब छीन गया है शाख सें यहां,
टूटे फूल की क्या है औकात, कैसे कहूं...

दर्द हैं लबों में मेरे, मेरे लफ़्ज़ों से दर्द है,
तोह सब झूठे हैं इल्ज़ामात, कैसे कहूं...

हर पल इक बरस, हर बरस नासूर हुआ,
हर पल में गुजर रही, इक हयात, कैसे कहूं...

और इक रात, और इक उम्र मेरी,
कैसे कटी थी कल की रात, कैसे कहूं...

वक़्त बेरहम हैं, वक़्त बेगुनाह कैसे,
ये दूरियों का है आलात, कैसे कहूं...

तुमसे जो बनती थी, मेरे हम-नफज,
ये बिखरी हैं मेरी कायनात, कैसे कहूं...

मेरे महबूब मेरी सज़ा यहीं है कि बस,
अब कुछ नहीं हैं मेरी बिसात, कैसे कहूं...

आ जाना कब्र पर मेरी और आवाज़ देना,
और बताना ये दफ्न जज़्बात, कैसे कहूं...

ये जो आदत हैं

ये जो आदत हैं तेरे दीदार की
जान के साथ ही तोह छूटेगी

रात के राज़ में ये सुबह हुई 
और एक सुबह, और एक रात कटेगी

तेरे कंवल के आदि हुए है हम
नैनो में आज इक यहीं कसक उठेगी

तेरी ही जान है, तेरा ही जहान है
तू अपनी जान से कबतक रूठेगी

ये चाय की प्याली ठंडी हो जाएगी
छू लो इसे ये बिखरेगी जोह टूटेगी

जब नहीं दिखेंगे उस जगह हम
अकेले चलने की हिम्मत कैसे जुटेगी

अकेला है आईना, बहोत तकलीफ़ होगी
शीशे में कैद हमारी तस्वीर जब फूटेगी

थाम लेना गर दिल कहें तुम्हारा
मेरी जान, मेरी जान, जब तुम पर लूटेगी



तेरे लिए उम्रभर

क्यो ये खुमारी मेरे दिल में
चल रही हैं इस कदर
तेरा ज़िक्र हुआ है जिधर
मै चल पड़ा हूं उधर

सुर्ख सपनों में तेरे
रात भर जागू मैं
दिन ढले वोह मुझे
दिखा नहीं है किधर

उसका बयां था वोह
रुकेगा वहां पलभर
मुद्दते है गुजरी,
आया नहीं है नजर

बेकरारी है या 
है ये इश्क़ तेरा
तू मेरा ना सही
मैं तेरा हूं मगर

मैं रुक जाऊंगा
ए मेरे हमनशीं
यही इसी डगर
तेरे लिए उम्रभर



Monday, February 3

कितना आसान है फर्क

कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।
मजहब का दायरा हैं, और डर की लकीरें।
इक अरमानों का ज़ख़ीरा, तेरा भी, मेरा भी,
और फ़कीर की झोली, तेरी भी, मेरी भी।
फैलाएं बैठें हैं दोनों, इस दर, उस दर,
मैं रहीम के सजदे में, तू राम की चौखट पर,
ख्वाहीशें भी हैं, दलीलें भी हैं, और झुका सर,
तेरा इक रंग, मेरा इक रंग, अलग इस कदर।
कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।

रोये पैदाइश पर, याद हैं अगल बगल।
तूं माॅं की गोद में, मुझे अम्मी का आंचल।
तूं हिन्दी में रोया, मैं उर्दू में, पता हैं।
सरकारी अस्पताल में, इक सफेद बिस्तर पर।
महताब़ से, आफ़ताब़ से, ईद में, दिवाली में।
रौशन था तेरा घर, रौशन था मेरा घर।
अज़ान से पुजन तक, तू अलग, मै अलग।
कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।

जो बुरखें के बाहर आ न सकी, वोह मेरी बीवी थीं।
जो मंदीर के अंदर जा न सकी, वोह तेरी बीवी थीं।
जो जिन्दग़ी देने को बहा, वोह खून नापाक था।
जो जान लेके बहा वोह शायद पाक था।
कठुआ में, उन्नाव में, इस देश के हर गांव में
इज्जत दोनों की लुटी हैं, तेरी भी, मेरी भी।
मैने सब दफ़ना दिया और तूने जलाया हैं।
कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।

जो मंदिर बन न पाया, वोह इक तेरा था।
जो ढांचा गिराया गया, वोह इक मेरा था।
फिर जो काटे गये वोह कुछ मेरे थे।
और जो जलाए गये वोह कुछ तेरे थे।
कुछ मातम़ तेरे घर कुछ मातम़ मेरे घर।
कुछ मना रहें जशन इंसानियत की कब्र पर।
तेरी नहीं, मेरी नहीं, वो इक अलग नस्ल है
हिंदू हैं, मुसलमान हैं, बस इंसान वस्ल हैं।
कितना आसान है फर्क तुझमें और मुझमें।