Friday, February 14

बे-पनाह

इक परिंदा मासूम भरता है आह,
दर दर पे उतरके, ढूंढ़ता पनाह...

सोचता है शजर, क्यो गिर पड़ा,
क्या थी वजह, क्या था गुनाह...

हर तिनके में तिनका, महोब्बत रखी,
और उड़ गए आवारा, बे-परवाह...

यू बिखरा घिरोंदा, बनाया था जो,
एक पल के तूफा ने, किया तबाह...

टूट चुका हौसला, अब मेरे मालिक,
नहीं कोई आरज़ू, ना कोई चाह...

मेरे बिखरने पे गर संवरता है कोई,
सजा देना अर्थी, दिखा देना राह...

ये इश्क का दिन, आज है क्या,
ये रात चुनते हैं, होने फनाह़...

वो शब-ए-वस्ल थीं, आख़री थीं,
ये आख़री ग़ज़ल, इक आख़री वाह...

ऐ रुकते मुसाफ़िर, क्या पा लिया,
गर कर भी ली महोब्बत, बे-पनाह...

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