Monday, February 3

कितना आसान है फर्क

कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।
मजहब का दायरा हैं, और डर की लकीरें।
इक अरमानों का ज़ख़ीरा, तेरा भी, मेरा भी,
और फ़कीर की झोली, तेरी भी, मेरी भी।
फैलाएं बैठें हैं दोनों, इस दर, उस दर,
मैं रहीम के सजदे में, तू राम की चौखट पर,
ख्वाहीशें भी हैं, दलीलें भी हैं, और झुका सर,
तेरा इक रंग, मेरा इक रंग, अलग इस कदर।
कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।

रोये पैदाइश पर, याद हैं अगल बगल।
तूं माॅं की गोद में, मुझे अम्मी का आंचल।
तूं हिन्दी में रोया, मैं उर्दू में, पता हैं।
सरकारी अस्पताल में, इक सफेद बिस्तर पर।
महताब़ से, आफ़ताब़ से, ईद में, दिवाली में।
रौशन था तेरा घर, रौशन था मेरा घर।
अज़ान से पुजन तक, तू अलग, मै अलग।
कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।

जो बुरखें के बाहर आ न सकी, वोह मेरी बीवी थीं।
जो मंदीर के अंदर जा न सकी, वोह तेरी बीवी थीं।
जो जिन्दग़ी देने को बहा, वोह खून नापाक था।
जो जान लेके बहा वोह शायद पाक था।
कठुआ में, उन्नाव में, इस देश के हर गांव में
इज्जत दोनों की लुटी हैं, तेरी भी, मेरी भी।
मैने सब दफ़ना दिया और तूने जलाया हैं।
कितना आसान है फर्क, तुझमें और मुझमें।

जो मंदिर बन न पाया, वोह इक तेरा था।
जो ढांचा गिराया गया, वोह इक मेरा था।
फिर जो काटे गये वोह कुछ मेरे थे।
और जो जलाए गये वोह कुछ तेरे थे।
कुछ मातम़ तेरे घर कुछ मातम़ मेरे घर।
कुछ मना रहें जशन इंसानियत की कब्र पर।
तेरी नहीं, मेरी नहीं, वो इक अलग नस्ल है
हिंदू हैं, मुसलमान हैं, बस इंसान वस्ल हैं।
कितना आसान है फर्क तुझमें और मुझमें। 

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