Tuesday, October 20

सच

लोग आते हैं और जाते हैं; क्या फर्क पड़ता हैं
देखकर मुँह मोड़ जाते हैं; क्या फर्क पड़ता हैं...

जो जश्न में शरीख़ हुए; उनका अब पता नहीं
झूठे साथ छोड़ जाते हैं; क्या फर्क पड़ता हैं...

ख़ुशी-गम; ज़िन्दगी- मौत; सारें वादे टूट जातें हैं
शब साया चुरा लेती हैं; क्या फर्क पड़ता हैं...

लफ्ज कोरे हो या कागज़; दिल गम बयाँ करता हैं
शायरी ग़ज़ल बन जाती हैं; क्या फर्क पड़ता हैं...

तुम सच जानना चाहते थे, लो मैने कह दिया
मैं होश में हूँ या मदहोश; क्या फर्क पड़ता हैं...

शोहरत दिल की होगी तो; सुकून की नींद होगी मुसाफिर!
नींद घर में हो या कब्र में; क्या फर्क पड़ता हैं...

Monday, October 19

जवाब

यु ही टहलते हुए अपने घर से;
दूर एक गुम होती सी सड़क पर
मैं एक जानी पहचानी शक्ल से मिलता हूँ;
वक़्त को फिर से अपने सामने खड़ा देखता हूँ;
मैं वक़्त के गिरेबान को  थामता हूँ कसकर
और पूछता हूँ उससे;
कि क्यों वो छीनता हैं मुझसे
सारे पल उल्फत के
और वो सारी खुशियाँ;
जो पलभर के लिए ही सही
जीने का एहसास दिलाती हैं....

मैं झकझोर देता हूँ वक़्त को
और पूछता हूँ;
कि क्या वजह है मुझसे मेरी
महोब्बत छीनने की;
और पूछता हूँ क्यों वो
बीतें नहीं बीतता
जब गम दिल में
घर करके बैठ जाता हैं...

मैं जवाब मांगता हूँ की;
क्यों सीखा रहा हैं वो मुझे
जीने के वो तरीके
की जिनमें मैं यूं मशरूफ होता हूँ
की ज़िन्दगी भूल जाता हूँ...

मैं सारे इल्जाम लगा कर
वक़्त को महोलत देता हूँ
की जवाब मेरे सवालों के
कभी तो वक़्त देगा...

वक़्त धीरे से मुस्कुराकर
मुझसे कहता हैं;
देखता हूँ कितनी देर तू
मेरे गिरेबान पकड़ रखता हैं;
तेरी ज़िन्दगी भी मैं यु ही
बिन बताएं छीन लूँगा...

मैं अपनी पकड़ ढीली कर
देखता हूँ उसकी आँखों में;
और फिर इस बार उसे
जितने देता हूँ मुझसे
ये सोचकर की;
जब अगली बार मिलेगा
तब सारे जवाब जरूर लूँगा....