Thursday, April 23

"इंतज़ार"

ख्वाबों के बादल उड़ गएं
अरमानों का आसमाँ सुना सा हैं
कभी भरी हुआ करती थी फलक तक
अब न आरजू हैं और न ख्वाहिशें
किस उम्मीद को दिल में रखू
कि कभी बरसते थे बादल यहाँ
अब बस नीली चादर हैं दूर तक
और भीगने की एक तमन्ना हैं
दर्द ये नहीं की चांदनी ना दिखी
वो रूठ कर कभी कभी छुप जाती हैं यूँ ही
और दर्द ये भी नहीं की अब यु अक्सर होने लगा हैं
की आज भी उसका दीदार न हुआ
बस ये दर्द की दर्द होना चाहिए था
की जब रूठी थी, मनाना चाहिए था
दर्द ये हैं की अब कोई दर्द नहीं
मैं चाहता हूँ की फिर बादल उमड़ पढ़ें
और फिर बरसात हो, और जब
मैं भीगा हुआ फलक पर नज़र उठाऊ
की कहीं बदलो के बीच वो एक अकेली दिख जाएं
छोटी सी टिमटिमाती हुई
मैं जान जाऊँगा की आरजू अभी दफन नहीं हुई
बस बदलो ने ढक लिया था उसे
मुझे "इंतज़ार" का मतलब बताने के लिए...

सरहदें!!

I wrote it for a play by theater club GNLU named "यहाँ ख़ौफ़ बिक रहा हैं". The plot is of a conversation between God and a terrorist. it goes as follows;

Terrorist:
या ख़ुदा खोल दे तू ज़न्नत के दरवाज़े...
मैं मेरा फ़र्ज़ मुक़म्मल कर के आया हूँ...
पाक़ कर दी जमीं मैंने दुश्मन के ख़ून से ...
देख नापाक क़ाफिरों को क़त्ल करके आया हूँ...
God:
गुस्ताख़ तू ये न भूल मेरे दर पे आया हैं...
जाने कितने मासूमों का मातम साथ लाया हैं...
कौन हैं दुश्मन तेरा किस फ़र्ज़ की बात हैं ...
बता गुनाह करके किसने साथ ख़ुदा पाया हैं ...
Terrorist:
पर ख़ुदा आक़ा का हुक्म मैंने ही तो समझा था...
सब मेरे मज़हब के दुश्मन ख़ाक करके आया हूँ...
तेरे ही तो कहने थे की क़त्ल कर दो कातिल को...
फिर भी ख़ुदा क्यों मैं तेरा दिल जीत न पाया हूँ...
God:
जो मैंने कहाँ क़त्ल कर वो तेरे अंदर क़ाफ़िर था...
गर करता कुछ ऐसा तो मैं तेरे दर पर हाज़िर था...
समझ न पाया तेरा आक़ा, तू भी गुनाह कर बैठा...
पाक़ हैं इन्सां क्या बताऊ, तेरा आक़ा ज़ाहिल था...
Terrorist:
पर गुनाह वो भी है जो बाकी लोग करते हैं...
पैसे जैसी चीज पर जान निसार करते हैं...
छीन लेते हैं हमसें हमारी सरजमीं धमाकों में...
फिर क्यों न लोग उन्हें दहशतगर्द कहते हैं ...
God:
उनके गुनाह से तेरे गुनाह जायज करार मत दे...
न हो की तू बेगुनाह को छलनी कर के रख दें ...
जहन्नुम की आग भी क्या कम होगी रे गुस्ताख़...
जो गुनाह तेरे कोई ख़ुदा के आगे लिख दे...
Terrorist:
पर मैं तो अपनी क़ौम का सबसे प्यारा बंदा हूँ...
आक़ा ने कहाँ सबसे की मैं तेरा नुमाइंदा हूँ ...
की ज़न्नत नसीब होगी जो क़ौम पर मैं मर गया...
बस लड़ना होगा तब तक की जब तक मैं ज़िंदा हूँ...
God:
किससे लड़ने कहा था तू किससे लड़के आया हैं...
मेरे प्यारे गुलिस्तां को तू बंजर करके आया हैं..
क्या सजदे क्या तौबा तुझे किसका फक्र हैं ..
बता मज़हब में कहाँ मार-काट का ज़िक्र हैं ...
Terrorist:
या ख़ुदा ये मतलब तो आक़ा ने नहीं बताया था...
गुनाह की डगर पे ख्वाब-ए-ज़न्नत दिखाया था...
तू बता इस गुनाह को कैसे मैं सवार दूँ...
तू कहें तो तेरे कदम जान से निहार दूँ ...
God:
क्या करेगा ना-मुराद तेरे बस की बात नहीं..
मुर्दा ज़िंदा करने की तेरी कोई औकात नहीं..
भूल जा मेरे दर पे की तेरा कोई मज़हब हैं..
गुनाह करके तौबा हो ये कैसा गजहब हैं..
Terrorist:
या ख़ुदा बख़्श दें की हर जनम तौबा करूँ..
कोई मुझसा ना बनें बस यहीं दुआ करूँ..
मज़हबों की सरहदों को यूं मिटा दें ऐ ख़ुदा..
की इन्सां को इन्सां से मैं कभी न करूँ जूदा...3