Thursday, April 23

"इंतज़ार"

ख्वाबों के बादल उड़ गएं
अरमानों का आसमाँ सुना सा हैं
कभी भरी हुआ करती थी फलक तक
अब न आरजू हैं और न ख्वाहिशें
किस उम्मीद को दिल में रखू
कि कभी बरसते थे बादल यहाँ
अब बस नीली चादर हैं दूर तक
और भीगने की एक तमन्ना हैं
दर्द ये नहीं की चांदनी ना दिखी
वो रूठ कर कभी कभी छुप जाती हैं यूँ ही
और दर्द ये भी नहीं की अब यु अक्सर होने लगा हैं
की आज भी उसका दीदार न हुआ
बस ये दर्द की दर्द होना चाहिए था
की जब रूठी थी, मनाना चाहिए था
दर्द ये हैं की अब कोई दर्द नहीं
मैं चाहता हूँ की फिर बादल उमड़ पढ़ें
और फिर बरसात हो, और जब
मैं भीगा हुआ फलक पर नज़र उठाऊ
की कहीं बदलो के बीच वो एक अकेली दिख जाएं
छोटी सी टिमटिमाती हुई
मैं जान जाऊँगा की आरजू अभी दफन नहीं हुई
बस बदलो ने ढक लिया था उसे
मुझे "इंतज़ार" का मतलब बताने के लिए...

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