Friday, February 28

महोब्बत ...

बस्ती करोड़ों कि थी, अब जल चुकी है;
जलती आग कि लौ भी अब ढल चुकी हैं...

यू तो बूँद नहीं बची मैकदे में मगर;
नशे में डूबने, भीड़ चल चुकी है...

बस ज़ख्म बचे हैं जिस्म पर मेरे;
मेरे दर्द को दुनिया भूल चुकी हैं...

लगा था कि अंधियारे में हूँ मैं;
पर अब आँखों कि पट्टी खुल चुकी है...

दाग दामन में लगे थे बेफवाई के;
मेरे अश्कों से नब्ज़ नब्ज़ धूल चुकी है...

यू ज़माने के लिए मैं रहूँ बेवफा;
पर मेरी महोब्बत अकेले में रूल चुकी हैं...

थोड़ी देर पहले ही मै लौटा था शमशान से;
मेरी बारात अब वही निकल चुकी हैं...

नरीमन चार कंधे, हज़ारो बहते अश्क़;
ये महोब्बत कितने आशियाने निगल चुकी है...

फिरता हूँ...

मैं खुदमें तेरा नाम लिए फिरता हूँ;
इश्क़ में तेरे बदनाम हुए फिरता हूँ...

शायद मंज़िल अपनी पीछे छूट गयी कहीं;
यारों हज़ारों में गुमनाम हुए फिरता हूँ...

साकी तेरी तरह ही हो लिया आज मैं भी;
अब प्यार के नशे का जाम पिए फिरता हूँ...

कोई हाक़िम ना मिला मेरे मर्ज़ की दवा देनेवाला;
मैं भी ज़िंद-ए-शाम का इंतज़ार किये फिरता हूँ...

हुक़ूमत उन्हीं की है जो दिलों पे राज करते हैं;
मैं तो ज़ंज़ीरों में अपनी आज़ादी लिए फिरता हूँ...

जंग-ए-ज़िन्दगी तो अभी जारी हैं "मुसाफिर";
और मैं हूँ की बस प्यार किये फिरता हूँ...
..........................................................मुसाफिर

याद आयी..

आज हमें उनसे हुई मुलाक़ात याद आयी;
बड़े दिनों के बाद दिलों की बात याद आयी...

जब टकरायें वो हमसें एक अनजान मोड़ पर;
तब निगाहों से की हुई सौगात याद आयी...

उनकी सबसे छुपती हमें ढूंढती नज़र;
उनकी चमक से रोशन हुई वो रात याद आयी...

वो मिलना हमें उनका दर्द के गलियारों में;
और गर्म अश्कों की वो बरसात याद आयी...

एक रोज़ उन्होंने विदा ली हमसे;
हमारे सामने उठी डोली वो बारात याद आयी...

हम भी चल पड़े थे कफ़न का सेहरा पहने "मुसाफिर";
हमे जनाज़े से की हुई खुराफात याद आयी...
......................................................... मुसाफिर