Friday, February 28

महोब्बत ...

बस्ती करोड़ों कि थी, अब जल चुकी है;
जलती आग कि लौ भी अब ढल चुकी हैं...

यू तो बूँद नहीं बची मैकदे में मगर;
नशे में डूबने, भीड़ चल चुकी है...

बस ज़ख्म बचे हैं जिस्म पर मेरे;
मेरे दर्द को दुनिया भूल चुकी हैं...

लगा था कि अंधियारे में हूँ मैं;
पर अब आँखों कि पट्टी खुल चुकी है...

दाग दामन में लगे थे बेफवाई के;
मेरे अश्कों से नब्ज़ नब्ज़ धूल चुकी है...

यू ज़माने के लिए मैं रहूँ बेवफा;
पर मेरी महोब्बत अकेले में रूल चुकी हैं...

थोड़ी देर पहले ही मै लौटा था शमशान से;
मेरी बारात अब वही निकल चुकी हैं...

नरीमन चार कंधे, हज़ारो बहते अश्क़;
ये महोब्बत कितने आशियाने निगल चुकी है...

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