Saturday, March 1

हमसफ़र

रात सुर्ख आँखों में इस कदर रूकी हैं;
कि रौशनी हुई है और रौशनी भी नहीं...

शब् ने मेरे दिल को ही घर बना लिया;
कि शब् रूकी है दिल में जो ढलती भी नहीं...

जो बेरुखी हो हमसे तो बता दीजियेगा;
जो बेरुखी हो लंबी कि ज़िन्दगी भी नहीं...

इस चाँद को थोडा और ऊँचा कर दो;
है छूने कि तमन्ना जो बदलती भी नहीं...

हाँ, वो उम्रभर भूल न पाए हमें;
इक यादों की शमा कि उनसे जलती भी नहीं...

महोब्बत का गूर कहीं गूम गया है हम में;
क मैकदे के साकी में जो मैकशी भी नहीं...

घर के किवाड़ों को मेरे खुला छोड़ देना;
वो देख सके महोब्बत ये बाहरी भी नहीं...

कि साथ अक्सर छूटते हैं राहों पे 'मुसाफिर';
कि हमसफ़र समझते थे वो राहगीर भी नहीं...
..................................................मुसाफिर

No comments:

Post a Comment