Saturday, March 1

अजनबी...

आंच हलकी हैं अभी, फूँक के बुझा ले;
आगे जलजले उठने में देर नहीं लगेगी...

बचा है जो यहाँ, समेट ले आगोश में;
ये आशियाना टूटने में देर नहीं लगेगी...

कर ऐसा इश्क़ की दूरी कभी न हो;
तेरी महोब्बत को रूठने में देर नहीं लगेगी...

बस अभी आसमाँ रोने को है, फिर;
इस बस्ती के डूबने में देर नहीं लगेगी...

हर बहती कश्ती किनारे नहीं लगती;
लहरे दर्द की जुटने में देर नहीं लगेगी...

माना की आईने में हम उन्हें देखा करते हैं;
शीशा है, फूटने में देर नहीं लगेगी...

हम फ़लक़ तक उड़ने की ख्वाहिश नहीं रखते;
साथ अपने ही परों का छूटने में देर नहीं लगेगी…

हमारी पहचान ही हमसे अजनभी हुई है;
ये अश्क रुकने में कैसे देर नहीं लगेगी…
.....................................................मुसाफिर

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