Saturday, March 1

कुछ नहीं हैं तुम्हारा...

इस ख्वाब के दरिया का, किनारा कहाँ हैं;
जो देखना चाहती थी नज़रे, वो नज़ारा कहाँ हैं ...

किया करते थे जिससे, तुम महोब्बतें बयाँ;
मेरे मेहबूब तुम्हारा, वो इशारा कहाँ हैं...

जिन लबों को छूकर, वक़्त गुज़रता था हमारा;
न जाने ज़िन्दगी का, वो गुज़ारा कहाँ हैं...

तिलमिलाती सी जलती रही, मेरे साथ अँधेरे में;
शमा बुझ गयी हैं, सवेरा कहाँ हैं...

जो गाया करता था, यहाँ नगमे वफ़ा के;
मैं ढूँढता हूँ उसे, वो बंजारा कहाँ हैं...

मेरे लफ्ज, मेरी ग़ज़ल, जिनके सहारे जीता था;
लफ्ज खो चुके हैं, मेरा सहारा कहाँ हैं...

कुछ नहीं हैं तुम्हारा, ये अब तो समझ लो "मुसाफिर"
जो हमारा हुआ करता था, वो अब हमारा कहाँ हैं...
...................................................मुसाफिर

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