Saturday, March 1

हक़ीक़त ...

हम दूसरों के घर बुझाने निकले थे;
घर खुदका कब जल गया पता ही नहीं चला...

यार बरसो बाद मिलने वाला था हमें;
वो सामने से हमारे कब गया, पता ही नहीं चला...

अहसास अब हुआ है की वो साथ नहीं है मेरे;
रुख धीरे से कब मोड़ लिया पता ही नहीं चला...

सोचा आवाज़ होगी तब यकीन करेंगे;
दिल ख़ामोशी से कब टूट गया पता ही नहीं चला...

नज़र उठाई फ़लक़ पर, एक तारा टूट रहा था;
हमारे देखते ही क्यों रुक गया, पता ही नहीं चला...

हमे लोगो से पता चला हमारी कब्र खुद रही है;
मैं इंसानो से कब उठ गया, पता ही नहीं चला...
..............................................................मुसाफिर

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