Wednesday, August 6

ठोकरें

क्यों उस गैर को याद कर रहे हों
फिर पाने की फ़रियाद कर रहे हों...

इश्क़ के दायरे गम में सिमटते हैं
उल्फ़त ढूंढने में उम्र बर्बाद कर रहे हों...

यहाँ हर सहर दुनिया जल रही हैं
और सर्रारों में बैठे बरसात कर रहे हों...

ये दलीलें नहीं की गुनेहगार तुम थें
जो गुनाह-ए-सबब इश्क़ दिनरात कर रहे हो...

इस राह की ठोकरें तुम खा चुके "मुसाफिर"
फिर भी महोब्बत की बात कर रहे हों...
.................................................मुसाफिर...

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