Tuesday, September 2

ज़िन्दगी

सवाल हैं वजूद का या जवाब है ये ज़िन्दगी
या मौत से छिपने का नक़ाब है ये ज़िन्दगी

उल्फत में हों अगर तो आखें क्यों भीगी है
देखता हु तो लगता है ख़फ़ा है ये ज़िन्दगी

लम्बी उम्र की क्यों मांगते है दुआ लोग
सुनता हूँ तो लगता है रफ़ा हैं ये ज़िंदगी

रहत उसकी साँसों में किस चीज की है आखिर
महसूस करू तो लगता है दगाह है ये ज़िन्दगी

आखरी पन्ना किताब का फाड़ दिया है किसीने
पढता हूँ तो लगता हैं गुनाह है ये ज़िन्दगी

मुझे देखके कहते है जी रहा है "मुसाफिर"
जीता हूँ तो लगता है सज़ा हैं ये ज़िन्दगी...

No comments:

Post a Comment