Friday, February 5

महोब्बत के लिए


हिज्र के दौर से महरूम-ए-महोब्बत; गुज़र ही सकते हैं
जो वाक़िफ़ है मेरे हाल से, दो गज़; बिखर ही सकते हैं...

उनके अक्स पर स्याही; कैसे लगा जाती बेवफ़ाई;
हमारी नज़रों में वो बस; निखर ही सकते हैं...

माना की उनसे अलग; हमें इख़्तियार नहीं था;
इख़्तियार हैं की हम; फिर से उनपर; मर ही सकते हैं...

आज कल में कर लेने दो; हमें ख्वाहिशें पूरी;
मुद्दतों में हम भी कभी; सँवर ही सकते हैं...

जो; दिल समंदर हो गम का; तो बूंदो से क्या बहेगा;
आपके ख़ातिर पलकों में दो अश्क़; भर ही सकतें हैं...

जब दफ़्न करों हमें तब; उन्हें इत्तिला मत करना;
हम शायर हैं; लफ्जों से; उभर ही सकते हैं...

लोग चौंकते हैं; की याद में; ज़िन्दगी कैसे गुज़ार दी;
अपनी महोब्बत के लिए हम; इतना तो; कर ही सकते हैं...

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