देने वाले तेरी नियत साफ है क्या
शोलों से भरे ये अल्ताफ़ हैं क्या
ढलान पे मिला मुझे मेरा रक़ीब
चढ़ान पर उनका घर, इंसाफ़ है क्या
चलो माना मीरे इक हाथ से बजी ताली
अब बताओ मेहबूब सब माफ हैं क्या
दर- दरख़्त-दरिया मेरा मकां हुआ करते थे
तेरे घर के सामने अब सब साफ है क्या
नज़र नज़ारा हुई हुस्नवालों की 'मुसाफिर'
ढलती उम्र इश्क़ के ख़िलाफ़ है क्या!
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