रात सुर्ख आँखों में इस कदर रूकी हैं;
कि रौशनी हुई है और रौशनी भी नहीं...
शब् ने मेरे दिल को ही घर बना लिया;
कि शब् रूकी है दिल में जो ढलती भी नहीं...
जो बेरुखी हो हमसे तो बता दीजियेगा;
जो बेरुखी हो लंबी कि ज़िन्दगी भी नहीं...
इस चाँद को थोडा और ऊँचा कर दो;
है छूने कि तमन्ना जो बदलती भी नहीं...
हाँ, वो उम्रभर भूल न पाए हमें;
इक यादों की शमा कि उनसे जलती भी नहीं...
महोब्बत का गूर कहीं गूम गया है हम में;
क मैकदे के साकी में जो मैकशी भी नहीं...
घर के किवाड़ों को मेरे खुला छोड़ देना;
वो देख सके महोब्बत ये बाहरी भी नहीं...
कि साथ अक्सर छूटते हैं राहों पे 'मुसाफिर';
कि हमसफ़र समझते थे वो राहगीर भी नहीं...
..................................................मुसाफिर
कि रौशनी हुई है और रौशनी भी नहीं...
शब् ने मेरे दिल को ही घर बना लिया;
कि शब् रूकी है दिल में जो ढलती भी नहीं...
जो बेरुखी हो हमसे तो बता दीजियेगा;
जो बेरुखी हो लंबी कि ज़िन्दगी भी नहीं...
इस चाँद को थोडा और ऊँचा कर दो;
है छूने कि तमन्ना जो बदलती भी नहीं...
हाँ, वो उम्रभर भूल न पाए हमें;
इक यादों की शमा कि उनसे जलती भी नहीं...
महोब्बत का गूर कहीं गूम गया है हम में;
क मैकदे के साकी में जो मैकशी भी नहीं...
घर के किवाड़ों को मेरे खुला छोड़ देना;
वो देख सके महोब्बत ये बाहरी भी नहीं...
कि साथ अक्सर छूटते हैं राहों पे 'मुसाफिर';
कि हमसफ़र समझते थे वो राहगीर भी नहीं...
..................................................मुसाफिर
No comments:
Post a Comment